कुर्सियों से चिपके लोगों के
हाथों गढ़वाते रहें कीलें
हडि्डयों की देह पर
कब तक हम
यातना सहते रहें ?
चर कर पीढ़यिों का सुख
स्वार्थों के बरगद तले
कर रहे जो शाब्दिक जुगाली,
भला कहां है
देखने को आंखें
उनके सिर्फ दो कोड़ियां हैं
जो देख सके हमारी बेहाली
बाज के शिकंजों में है
इच्छाओं के कपोत,
कब तक हम
मुक्ति की वंचना सहते रहें ?
मुर्गे की बांग भोर के आने का वह़म है,
सच तो यह है कि धुँए में
डूबा है सारा आकाश,
चालाक लोमड़ियां
शहर की सड़कों पर घूमती है
उजले वस्त्रों में
और समय पाते ही
खा जाती है किसी का विश्वास,
कितनी ही उजली भोर की
क्वांरी किरण को निगल गए
ये, गुनाह के अँधेरे
आखिर कब तक
किसी कुछ की
सांत्वना सहते रहे ?
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