रद्दी के अखबार हो गए
सुबह की खबर थे, पढ़ लिए बाद बेकार हो गए।
कबाड़ी के हाथ बिके, रद्दी के अखबार हो गए।।
ऐसी चली आंधियां, तिनका-तिनका हो उड़ गए-
कि घर गरीब के, बिना छप्पर की दीवार हो गए।।
हुआ करते थे कभी कि खुश्नुमा मौसम की आहट,
जेब में सूखे फूल हैं, अब बीती बहार हो गए।
नींव के पत्थर रहे हम, जब भी बना कोई किला,
वो बुर्ज पर चढ़ गए, हम दर-किनार हो गए।
मंच भी है अभिनेता भी, मगर कलकार नहीं,
पर्दा उठाने-गिराने वाले सूत्रधार हो गए।
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अति सुन्दर !!
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