चुटकी भर प्यार दे
कोई
ऐसे लोग कब अपने
हुए,
दर्द की धूप लगी उड़
गए
ओस के मानिट सपने
हुए।
दिखते हैं जो
अभिजात्य
बंगलों में रूरी तो
नहीं
सच्चे सोने-से हों
लोग-
आजकल पीतल के गहने
हुए।
दोस्त बन सकते नहीं
ये
लपक के हाथ मिलाने
वाले,
पूछते हैं जो हाल,
यही
कल रात थे वहशी बने
हुए।
'रसखान' के कान्हा
की
'सूर' के मोहन से
रुसवाई,
बांसुरी गूंजे न सन्तूर
की झंकार
दोनों है तने हुए।
वो ललक, वो उल्हास,
वो नभ को छूते सावन
के झूले,
कहां वो महकते फागुन
के दिन
गुम हंसी के झरने
हुए।
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सच में हंसी ही दुर्लभ चीज हो गई है। कविता में कई चीजों की उपमा दी गई है। अच्छे लगे।
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