वह आदमी
जो
हल कांधे पर धरे
बैलों की रास थामे
अक्षरों से अनभिज्ञ
अक्षरों से शब्दों
के रिश्तों
और
उनकी ध्वनि से भी
अनजान है
किन्त वह कभी कोसता
नहीं
पृथ्वी, सूर्य,
मिट्टी-जल, आकश को
इन्हें टुकड़ों में
भी नहीं बांटता
वह तो
इन्हें जोड़ कर
संचित करता है
जीवन-शक्ति
अपने भीतर
शक्ति से
जन्म देता है
परिश्रम को
और
श्रम-बिन्दुओं को
बाता है
मिट्टी में
फिर हल की कलम से
लिखता है कविता।
जो अस्त्र बन
राष्ट्र की अस्मिता
के लिए
संघर्षों से
जूझना सिखाती है,
कविता
वह जो फसल-सी
लहलहा कर
भूख से लड़ती है।
-----
No comments:
Post a Comment