चांद-सूरज, धरती औ’
आकाश सब बबूल हो गए।
टिमटिताते तारे
चुभते द़ष्टियों में शूल हो गए।।
फ्रीज हुआ जा रहा कि
आदमी बन्द गवाक्षों में,
बसंती बेला-चमेली अब
प्लास्टिकी फूल हो गए।
सर्जक ही संहारक हो
कर रहे विश्व को आक्रांत,
विज्ञानी-समीकरण हल
करते-करते मूल हो गए।
क्रिस्टल-कम्प्यूटर
है विकास के बढ़ते चरण मगर-
आदर्श थे जितने सब
रेडियोधर्मी धूल हो गए।
धरा से नभ तक सिर
उठाए खड़े कि बारूदी-पहाड़,
गगन में शांति के
कबूतर उड़ाना फिजूल हो गए।
जुलूस की भाषा बोलते
हैं विसंगतियों के पुरोहित,
उजाले की इबारत
काटना जिनके उसूल हो गए।
बिसर गए संकल्प सभी
साथ-साथ अंजुलि भरने के,
डूबते-उतराते रहे,
लहर से दूर कूल हो गए।
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