मेरे बुढि़याते
पांवों के नीचे से
छूटती जा रही है
सतह।
अब संभव नहीं
स्थिर पांव खड़े
होकर
आकाश को थाम लेना,
नस-नस को चीरता
नाखूनों तक
उतर गया है
एक अबोली
पीड़ा का नीला जहर
मेरी लुजलुजी देह के
मोह में
व्यर्थ है
भीगी आंखों से
उलीच कर
प्रश्न-चिन्ह खड़े
करना,
क्यों खड़े करते हो
तुम
प्रश्न चिन्ह.......?
कोई उत्तर नहीं
इस डूबते सूरज के
पास
उठो, मेरे बच्चों !
मकड़ी के जाले से
बाहर आओ,
तुम्हीं को अब अपने
हाथ की रेखाएं गहरानी है
पसीने की दुर्गन्ध
को भभकाना है
और फिर हथेलियों पर
आकाश उठाना है ।
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