तरस गए कि चुल्लू
भर छावं को आंगन में,
आग लगी हे सरस हवाओं
के दामन में।
किरणों के दंश सहे,
प्यार की इक बूंद को-
रटते-रटते पिव-पिव
कजराए सावन में ।
भीतर का अमूर्त मन,
इतना निरर्थक,
गड-मड हुई
सतरंगी-उमंगे यौवन में ।
आदमी आदमी में, बांट
के दूरियां ये-
मंदिर उलझाते रहे,
पावन-अपावन में।
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