मैने मेरे बच्चों
को
वह
समझ- सोच को
सुसंस्कृत कला दो
कि
शब्दों को
छैनी की भांति
इतना
पैना करो
कि
संस्कारगत
रूढ़ियों की
परतों को
खूरच डालें।
छैनी के
तीखेपन में
उस कुशल मूर्तिकार
की
समझ-सोच हो
कि
मन खरोंच न पड़े,
रूपविधान,
अंतर्वस्तु
सभी शालीन संस्कार
उनकी भाषा को दिए
नहीं दिया
तो सिर्फ
उन्हें
दोगली भाषा का
ज्ञान
जिसके
अभाव में
वो
अभिमन्यु की तरह
घिर गए
कौरवी चक्रव्यूह
में।
किन्तु
उम्र बढ़ने के
साथ-साथ
आज बच्चे सीख गए
कि
मेरी सारी समझ-सोच
हो चुकी है
बुजुर्वा
और
वक्त ने उन्हें
बना दिया है
मूर्ति-भंजक।
सुन्दर रचना। आभार।
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