मैं नहीं जानता
मैं क्या बोलता हूँ
?
एक ही के प्रति
मेरे हो जाते हैं
दो अभिमत
झुठला देता हूँ
स्वयं की लिखी
इबारत
हर बोध को
स्वार्थ की तुलना
में तोलता हूँ।
मैं नहीं जानता
मैं क्या बोलता हूँ
?
जो पहले थी भली
वहीं फिर हो जाती है
बुरी
देता हूँ गालियां
मेरी कोई नहीं होती
धुरी
टिकने को स्वयं के ‘स्व’
को-
कुण्ठाओं की
कुल्हाडी से छीलता
हूँ
मैं नहीं जानता
मैं क्या बोलता हूँ
?
मेरा बडप्पन
हो जाता है बौना
अहम की तपती दुपहरी
में
झुलस कर सूखा दौना
जिसमं शंका के छेद
से
रिस जाता है सारा
विश्वास
यों विवेकहीन अन्धेरे
में
खालीपन को खंगालता
हूँ
मैं नहीं जानता
मैं क्या बोलता हूँ
?
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मेरा बडप्पन
ReplyDeleteहो जाता है बौना
अहम की तपती दुपहरी में
झुलस कर सूखा दौना
SUPER KAVITA
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aap se anurodh hai ki cooment verification code hata de ..comment kerne me aasani hogi
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