कभी
छैला सा
बन-संवर
गंधायित
तो कभी
उखडा-उखडा
धूलि-धूसरित सा
उपवन की
गलियों में
भटकता रहता है,
छेडता है
कलियों को, लताओं के
हरित-किशलय
कपोलो की
भरता है
चिकौटियाँ
और
खडक-खडक कर
पत्तियां
कितना
आवारा है
पवन।
छैला सा
बन-संवर
गंधायित
तो कभी
उखडा-उखडा
धूलि-धूसरित सा
उपवन की
गलियों में
भटकता रहता है,
छेडता है
कलियों को, लताओं के
हरित-किशलय
कपोलो की
भरता है
चिकौटियाँ
और
खडक-खडक कर
पत्तियां
कितना
आवारा है
पवन।
No comments:
Post a Comment