हर वर्ष
रेगिस्तान की अपार बालुका-राशि पर
उठता है
अकाल का तूफान,
क्या पशु क्या नर
सभी की बलि लेता है
अकाल
हर वर्ष रोग-व्याधि से ग्रसित
पानी को तरसती
ढाणी-दर-ढाणी को ढंक लेती है
प्रेत की छाया
मनुष्य चीखता है
पानी-पानी-पानी
और
शातिर लोग
संन्यासी बने
शोध में बैठे
योग-साधना में लीन हो
कूट चक्री इन्द्रजाल माया रचते हैं
हर वर्ष
पानी की खोज में।
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