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Tuesday, June 19, 2012

विकलांग मन

सूरज के सम्भाव से
मेरे घर की
काई लगी, पपड़ाई
दीवाल पर भी फैंकी
मुट्ठी भर किरणें
मैं समझा
धूप है अरूप,
उत्तर दिया
मेरे सिर के ऊपर से
बोलते, उड़ते
खग-वृन्‍द ने
मेरे विकलांग मन की
कोडि़यायी शंका को,
ऊपर देखा
आकाश में
सूर्य तो उजला ही था।
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1 comment:

  1. बहुत सुंदर कविता है "मन के हारे हार मन के जीते जीत"

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