हो गए
छोटे और छोटे
संबंधों के घेरे।
कजलाये हैं स्नेह के क्षितिज
धुंआती-सी दीवार
बीच दर्पण
और बिम्बों के
आकृतिहीन आकार।
झपट ले गए रोशनी को
गुनाह के अंधेरेा
शब्द पर प्लास्टिकी चेहरे
कैक्टसी-कुटिल
अर्थ,
नयी कविता के
नाम पर ज्यों भाषायी ज्ञान
व्यर्थ ।
छन्द, लय, गति
हुई घटनाएं
ज्यों बीते सेवेरे ।
मिलकर छूट जाते
स्टेशन तक
रेल यात्रा के
मित्र
हम बीथिकाओं में
प्रदर्शित
रंग-रूप-रसहीन चित्र।
इतना है विषाक्त आदमी
डरते हैं सपेरे।
No comments:
Post a Comment