तुम्हारे आश्वासन की
अंगुली पकडे
नन्हें बालक-सी
प्रफुलता लिए
ठुमुकता फिरता था मैं
पूरे माहौल में
चर्चा थी
बसंती हवा के आने की,
अहसास से
धडक उठता था
पत्तों का हृदय,
फूल बनने की अभिलाषा में
उमंग रहीं थीं कलियां
मन की कोकिला
कूकती फिरती थी
डाल-डाल
उमंग के सिवा कुछ भी तो गम न था।
तुम्हारी-
बेहद आत्मीयता के अससास से
मेरे छोटे-छोटे पांव
बढते-से लग रहे थे
एक गति-सी महसूसता था मैं
लगता था, जैसे मैं
तुम्हारे घुटनों से लगकर
कमर, कान और फिर कान के ऊपर
यानी तुम्हारे बराबर
होता जा रहा था मैं।
मेरा हर दर्द
तुम्हारा दर्द था ना......?
मेरी उदासी
तुम्हारे चेपर स्याह-सी
घिर आती थी......?
मेरे टूटने मात्र के खौफ से
तुम
सूखे पत्ते-से कांप जाते थे ना..... ?
मगर उस दिन
तुम्हारे
भीड में अंगुली छोड दिए जाने पर
अबोला बालक
मैं---
दहशत का मारा
दिशाहीन-सा
टूटे विश्वास की मुटि़ठयों में
बन्द किए
अपने आत्म-विश्वास की पराजय पर
स्तब्ध-सा
आंखों के खारेपन को उलीचता रहा
और तुमने----
मुझे तलाशने की भूल नहीं कीा
इस तरह छूट जाना भी
कितना निर्मम होता है ?
हटा भी तो नहीं पाता
मन के दरवाजे पर लगी
तुम्हारे नेह की नेम-प्लेट,
आज भी---
नहीं लगता
कि यह सही हुआ है,
लगता है
कहीं गलत हवा
घुसपैठिये-सी
विचार-यंत्र की तोड गई है
इसलिए
मस्तिष्क के रेडार पर
मेरी मासूमियत का चित्र
नहीं उभर पाता है।
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