एक सिरे से दूसरे सिरे तक
दूर, दृष्टियों के उस पार तक
फैला है
जंगल ही जंगल, एक काला जंगल
बारूद की दुर्गन्ध,
आदमी के जले मांस की संडांध
जिसमें भटकता
आम आदमी
जंगली जानवरों से आतंकित
स्वयं अपनी पहचान से कटा
भयांक्रांत
अमानवीय आचरणों का शिकार
वहम पाले है
किसी जनपद में रहने का
जहां
संशयों की छिपकलियों पर सवार
झिंगुरों की भाषा में बतियाते
सत्ता के भूखे भेडिए
मनुष्यता को मिटाने पर तुले हैं
और
सीलन भरी अंधेरी कोठरियों में बन्द
ठंडी आग पीता हुआ
आम आदमी
अपनी पहचान से कटा
सूर्य की तलाश में
भटक रहा है
युग-युगों से
इस काले जंगल में।
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