एक परिचय : रघुनाथ सिंह ''यादवेन्द''
--संजय सिंह जादौन
सौ वाचाल साहित्यकारों से वह सृजनरत कलमकार बेहतर है जिसका विश्वास सृजन और सृजित के प्रकाशन में है। अपने को अधिक प्रदर्शित करना या आवश्यक रूप से ज्ञापित करना ज्ञानी का द्योतक नहीं है। मुखर के ज्ञान से मौन का ज्ञान शक्तिशालीऔर सौ फीसदी सही है। विश्वविद्यालयी वक्ताओं का पुस्तकी ज्ञान सृजनशील कलमकारों के चिन्तन-मनन और निरन्तर स्वाध्याय के समक्ष कुछ नहीं रह जाता।
स्वाध्याय और सृजनरत रहे ''यादवेन्द्र'' को न तो कवि-सम्मेलों का मोह रहा है, न संग्रह प्रकाशन में कभी कोई रुचि रही है और न कभी किसी साहित्यिक आन्दोन से जुडे हैं।
स्वाध्याय और सृजनरत रहे ''यादवेन्द्र'' को न तो कवि-सम्मेलों का मोह रहा है, न संग्रह प्रकाशन में कभी कोई रुचि रही है और न कभी किसी साहित्यिक आन्दोन से जुडे हैं।
मैं बचपन से कविता के ऐसे मौन साधक और माहौल से परिचित रहा हूं जो भीतर से मुखर होकर भी बाहर से बातूनी नहीं है। मेरा मतलब प्रयोगशील कवि और नव गीतकार मेरे पिता रघुनाथसिंह ''यादवेन्द्र'' से है।
मेरे पिता के गीत की एक पंक्ति है- ''भीड में खुल सकते नहीं किवाड मन के।'' मैं समझता हूं, यह पंक्ति उनके कृतिकार की पर्याय हो सकती है, कही जा सकती है।
5 नवम्बर, 1934 को राजस्थान के झालावाड जिले बकानी गांव में जन्मे मेरे पिता रघुनाथसिंह ''यादवेन्द्र'' राजस्थान की स्वातंत्रय बाद की पीढी के कवि-गीतकार, लेखकर,बाल कथाकार हैं। बालोपयोगी पत्रिका ''बाल विनोद'' के कार्यकारी सम्पादक रहे है। मेरे पिता ''यादवेन्द्र'' को न कवि सम्मेलनों के मोह का भटकाव रहा है और न ही वह किसी ''साहित्यिक आन्दोलन'' से जुडे। सीधी सडक का एक दिशा में उन्मुख यात्री हैं वह।
देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में सऩ 1953 से निरन्तर प्रकाशित होती रही हैं। जिनमें प्रमुख है -- सरिता, मुक्ता, कादम्बिनी (दिल्ली), सन्मार्ग (कलकत्ता), युग प्रभात (केरल), पंच जगत (शिमला), शिराजा (जम्मू-कश्मीर साहित्य अकादमी), युगधर्म (नागपुर), अमर ज्योति, लोकवाणी, याम, अग्रगामी, नवज्योति, राष्ट्रदूत, राजस्थान पत्रिका, इतवारी पत्रिका, मधुमति (राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर) आदि।
देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में सऩ 1953 से निरन्तर प्रकाशित होती रही हैं। जिनमें प्रमुख है -- सरिता, मुक्ता, कादम्बिनी (दिल्ली), सन्मार्ग (कलकत्ता), युग प्रभात (केरल), पंच जगत (शिमला), शिराजा (जम्मू-कश्मीर साहित्य अकादमी), युगधर्म (नागपुर), अमर ज्योति, लोकवाणी, याम, अग्रगामी, नवज्योति, राष्ट्रदूत, राजस्थान पत्रिका, इतवारी पत्रिका, मधुमति (राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर) आदि।
यादवेन्द्र एक मौन साधनारत साहित्यकार है। इनकी बाल कथाएं राजस्थान पत्रिका, बाल हंस में प्रकाशत होती रही हैं। जयपुर के जाने माने प्रकाशक ''साहित्यागार'' ने लव-कुश, आओ सुने कहानी, बाल कथा-1996 बच्चों की बाल कथाओं की पुस्तकें प्रकाशित की है। इन्होंने तीन कविता संग्रह (1) अशीर्ष कविताएं-1984, (2) अनुभूतियों के क्षण-1988, (3) रेत की नदी-1997 प्रकाशित हो चुकी है। प्रथम दो कविता संग्रह राजस्थान साहित्य अकादमी के आर्थिक सहयोग से प्रकाशित हुए हैं और रेत की नदी के प्रकाशक साहित्यागार हैंा इनके द्वारा लिखित कृतित्व और व्यक्तित्व के अन्तर्गत, डॉ. मनोहर प्रभाकर, डॉ. मदन गोपाल शर्मा, सावित्री परमार, डॉ. ताराप्रकाश जोशी, श्री रामनाथ कमलाकर पर मोनोग्राफ, राजस्थान साहित्य अकादमी ने प्रकाशित किए हैं। कविताएं कविताएं, लोक पर्व, पर्यटन पर सचित्र आलेख देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में अभी समय-समय पर प्रकाशित हुई हैं। इसके अतिरिक्त बाल कथाएं भी प्रकाशित होती रही हैं। इनके द्वारा लिखित बाल कथाओं में शिक्षाप्रद दृष्टिकोण होता है। भारतीय संस्कृति की संसकारशील बात होती है।
एक दम निश्छल मन दरपनी-चरित्र और सरल स्वभाव का मधुर व्यक्तित्व है ''यादवेन्द्र'' का।
महां मुझे मेरे पिता की एक कविता याद आ रही है जिसमें उनके नाहक ही अपने अह़म को थोपने वाली अपरिपक्व प्रतिभाओं के बारे में लिखा--
''अहम़ का हथौडा,
तोडता है
संयम की सांकल
इन्फीरियोरिटी-सुपीरियोरिटी
कम्पलेक्स के
बादल
तब, विधवा इच्छाएं
विषमता के गंदले दर्पण में
आंजती है
क्षोभ के कडुवे तेल का
काजल।''
(अशीर्ष कविताएं-1984)
और यह सत्य भी है कि जिस पर कहने को बहुत है, वह मौन है और समय पर कहने का इच्छुक है, मगर जिस पर कुद नहीं, मगर जिस पर कुछ नहीं, वह अपने दर्द का ढिढोरा पीट रहा है। यथा, गहरायी रातों के लोग लम्बी देह वाले दिन को छोटा बता रहे हैं। यही एक मौलिक अन्तर है- सुविधायुक्त, पूंजीपति साहित्यकारों और मध्यमवर्गीय साहित्यकारों की दृष्टियों में। दर्द सभी के है मगर किसी का दर्द बडा है, किसी का बहुत छोटा। इस बात की ओर संकेत करते हुए ''यादवेन्द्र'' सही आदमी के सही दर्द की कविता कहता है--
''छा गया है
जिन्दगी के सम्पूर्ण
कैनवास पर दर्द,
जैसे बंद कमरे की
तस्वीरों पर चढी हो गर्द
और हटाते-हटाते
मलबे में जिसके
दब गया है
हडि़डयों मर्द।''
(अशीर्ष कविताएं-1984)
प्रयोगात्मक काव्य क्षमता का धनी है मेरे पिता। वह हर नई बात को अपने शब्दो में, अपनी भाषा में और अपनी तरह से काव्य में अभिव्यक्त करता है। एक शीर्षक विहीन कविता में--
''एकान्त के
बंद कमरे में
मन का टेलर
सूती, रेशमी-टेरेलीन के
काल्पनिक वस्त्र
सी-सी कर टांकता है
मस्तिष्क के हैंगर पर
जिन्हें
समय का बौना पुरूष
पहिन-पहिन कर
उतार देता है
नंगी भीड के खुले कमरे में।''
(अशीर्ष कविताएं-1984)
आज की यांत्रिकता से त्रस्त जीवन और मूल्य हीनता के युग में भौतिकता से कसे हुए आदमी की विकल्पहीन स्थितियों की इससे अच्छी अभिव्यक्ति और क्या होगी्। 'एकान्त का कमरा', 'मस्तिष्क का हैंगर', 'समय का बौना पुरूष' और 'नंगी भीड के खुले कमरे' यह सब आदमी की उन प्रवृतियों को दर्शाते है जिनका सम्बन्ध 'बाहर के आदमी' से कम तथा 'भीतर के आदमी' से अधिक होता है।
एक और कविता में 'सूर्य किरण' में यादवेन्द्र ने ''अमरूद के पेड', चिडियां जैसे प्रतीकों के माध्यम से तिमिर मन को धरती पर उतरने वाली सूर्य किरण से धोने की बात कही है, जिसमें जागरण का स्तर भी है, कवि का निवेदन भी।
कवियों को आदर देने में और उनके सम्मानार्थ गोष्ठियां आयोजित करने में मेरे पिता अग्रगामी तथा सजग रहे हैं। साहित्य संस्थान जयपुर की प्रारम्भिक गोष्ठियां पिता के निवास पर ही हुई हैं।
राजस्थान के बहुप्रकाशित साहित्यकार श्री दुर्गाशंकर त्रिवेदी ने मेरे पिता के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर कहा था -- ''मैं जयपुर निवासी कवियों-गीतकारों के नाम से परिचित रहा हूं और कभी किसी से मिला नहीं हूं। मगर यादवेन्द्र के सम्पर्क में आने के बाद मुझे लगता है, जयपुर की काव्य प्रवृतियों तथा गतिविधियों का आकाश खुला-खुला तथा स्वच्छ है। यादवेन्द्र बहुत ही सज्जन इन्सान हैंा उसके पास सच्चे साहित्यकार का मन है। जहां तक उसके कवि के रूप में होने के बात है, वह जैसा आदमी है वैसा ही कवि लेखक भी है।''
मेरे पिता के दूसरे काव्य संग्रह के लिए डॉ. त्रिभुवन चतुर्वेदी, भूतपूर्व प्राचार्य राजऋषि कॉलेज अलवर ने सही लिखा है--
''अनुभूतियों के क्षण'' रघुनाथसिंह ''यादवेन्द्र'' की कविताओं का दूसरा संकलन हैा उनके पहले कविता संकलन ''अशीर्ष कविताएं'' को पढकर लगा था कि सभी भाषाओं से ऊपर उठकर जो मन की भाषा होती है, मैं उसी में अभिव्यक्त सीधी, सरल, अकृत्रिम, रागात्मक अनुभूतियों से संपृक्त कविताओं को पढ रहा हूं। ''अनुभूतियों के क्षण'' के गीतों, गजलों, कविताओं का रसास्वादन कर मेरी यह धारणा पुन: पुष्ट हुई।
वास्तव में ''यादवेन्द्र'' धरती से जुडा कवि है। वह धरती, अन्तर की रस सृष्टि से रस प्राप्त करता है। वही रस सृष्टि को बाहर अभिव्यक्त करता है।
''मिट़टी से लेता है खुराक
खुराक से तना होता पुष्ट
फलता है, फूलता है,
फूल पत्तियों के
रूप-रंग-रस-गंध
बन जाते हैं संस्कृति।''
पर मिट़टी से खुराक लेते हुए भी कभी-कभी कवि का संवेदनशील हृदय आज के युग में संत्रास को घुट-घुट कर पी नहीं पाता। आज की इस बनावटी सभ्यता में उसे कोई रस नहीं मिलता है, मिलती है कोरी पाशविक यांत्रिकता।
''यादवेन्द्र'' का कवि मात्र रागात्मक अनुभूतियों का ही कवि नहीं, वह समसामयिक यथार्थ का भोक्ता भी है, जिसके बारे में एक हद तक खुली बात करता है, जो चाहे रसात्मक न लगे--
''दे डाली सब इच्छाओं की आहुति,
चुकती जाति श्वासों की समिधाएं।''
प्रयोगधर्मी कवि ने आत्मभिव्यक्ति के लिए नवनीत, नई कविता व गजल सभी का प्रयोग किया है। गजलों को नई भावभूमि पर उतारा है और कुछ अभिनव प्रयोग किए हैा रदीफ काफिये मिलाने के पक्षपाती कवि चाहे उनके गजल प्रयोग ''पत्थर के लोग'' को काव्य दोष युक्त माने और यह दिखावे कि बेगानापन व सन्निपात के लक्षणों में दूर का ही सम्बन्ध है। पर कहीं कहीं प्रास मिलाने की दृष्टि से ऐसे शब्दों का प्रयोग कर कवि की विवशता बन जाता है।
''अनुलूतियों के क्षण'' के कवि ''यादवेन्द्र'' ने जीवन के सतरंगी अनुभवों को ईमानदारी से अभिव्यक्त किया है, उन्होंने रोमान्टिक गीत भी लिखे हैं, यथार्थ को चित्रित करने वाली गजलें लिखी है, तो अभिनवबिम्ब विधानों के नए प्रयोगों के द्वारा महानगरीय बेगानेपन व्यंग्य भी किए हैं--
''सरकारी फाइलों के हम,
गांठ लगे फीते हुए।''
मध्यमवर्गीय बाबू जिन्दगी की इससे अधिक तल्ख अभिव्यक्ति कम देखने को मिलती है। राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित ''मधुमति'' जुलाई-1998 के अंक में डॉ. तरुण व्यास ने भी ''यादवेन्द्र'' के तृतीय काव्य संग्रह ''रेत की नदी'' के सन्दर्भ में लिखा है--
कविता संग्रह ''रेत की नदी'' कवि रघुनाथसिंह ''यादवेन्द्र'' का तीसरा काव्य संग्रह है जिसमें कविताओं तथा गजलों के रूप में कवि ने अपनी संवेदनाओं को अभिव्यक्त किया है।
प्रस्तुत कविताएं बिना किसी क्लिष्ट भाषा छद़म के, बौद्धिकता के बोझ से मुक्त पाठक को अपने भावों से आत्मसात करने में सक्षम रही है। कविताओं और गजलों और गजलों में व्यवस्था के प्रति आक्रोश एवं वास्तविकता का कडवा निरूपण निहित है, परन्तु कवि अपनी आशावादिता, परिवार जन्य संस्कार तथा नारी स्वरूप के प्रति सम्मान यथा स्थान मुखर करने में सक्षम रहे हैं। बडे मार्मिक ढंग से उन्होंने परिवारों की स्वार्थपरकता का चित्रण किया है--
''आज बच्चे अपने सुख के पर्वतों पर चले गए,
बच्ची उड गई चिडिया की तरह, संगिनी खो गई नाती-नातिन की माया में,
और मैं रह गया निपट अकेला, बूंद-बूंद रिसता हुआ घट।''
कवि प्रकृति प्रेम तथा ग्रामीण परिवेश की प्रति संवेदनशी है तथा मानव मूल्यों एवं विश्वबन्धुता के प्रति सम्मान का पक्षधर भी। विविध विषयों पर उनकी सुन्दर विचाराभिव्यक्ति ''श्रम संवलाई मजूरन'', ''हलधर'', ''माटी का संगीत'', ''फाल्गुनीबयार में तथा बीते सावन की यादें'' जैसे कविताओं में दृष्टव्य है।
कविताओं तथा गजलों में केवल विधा-शैली का अन्तर है, अन्यथा शब्दों को सहज सरल अभिव्यक्ति तथा समकालीन प्रासंगिकता पर दोनों ही खरी उतरी है।''
वर्तमान में ''यादवेन्द्र'' राजस्थान सरकार के जनसम्पर्क विभाग में सांकेतिक लिपी में लिखते-लिखते स्वयं संकेत हो गए। वर्ष 1992 (30 नवम्बर) को वरिष्ठ निजी सहायक के पद से सेवानिवृत हो गए। वृधावस्था के कारण इनकी कलम धीरे धीरे अब क्षीण होती जा रही है।
वर्तमान में ''यादवेन्द्र'' राजस्थान सरकार के जनसम्पर्क विभाग में सांकेतिक लिपी में लिखते-लिखते स्वयं संकेत हो गए। वर्ष 1992 (30 नवम्बर) को वरिष्ठ निजी सहायक के पद से सेवानिवृत हो गए। वृधावस्था के कारण इनकी कलम धीरे धीरे अब क्षीण होती जा रही है।
--संजय सिंह जादौन
548, बरकत नगर,
टोंक फाटक, महेशनगर रेल्वे क्रॉसिंग के पास,
जयपुर-302015 (राजस्थान)
09460345247
No comments:
Post a Comment